रांची, 31 जनवरी 2019 : सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ अब विचार करेगी की केन्द्रीय विद्यालय के छात्रों को संस्कृत में प्रार्थना करना चाहिए या नही। यदि यही प्रार्थना अंग्रेजी में होती तो कोई आपत्ति नही होती।
दूसरी आपत्ति प्रार्थना का उपनिषदों से होना है। विश्व की प्रथम पुस्तक वेद है ऐसा अब युनेस्को भी मानने लगा है। उपनिषद् वेदों का ही हिस्सा है। जो वैश्विक धरोहर है और भारतीयता की देन है उसे सेकुलर लोगों का एक प्रतिनिधि नकार रहा है। उसने न्यायालय मे वाद स्थापित किया है और विद्वान न्यायाधीश ने यह अतीव महत्वपूर्ण वाद है ऐसा मानकर उसे संविधान पीठ के विचारार्थ भेजा है।
केन्द्रीय विद्यालयों मे प्रार्थना है "असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।"
इसका अर्थ है - हमारी जीवन यात्रा असत् से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर और नश्वरता से अमरत्व की ओर जाने वाली हो।
वर्तमान भारत का बोध वाक्य है "सत्यमेव जयते।" अर्थ - सत्य की ही विजय होती है। यह भी उपनिषद् का वाक्य है। क्या इसे हटाने का अनुरोध होगा ? और न्यायाधीश उस पर भी विचार करेंगे ? जिह्नोने संविधान बनाया वह यदि जीवित होते तो वे माथा पीटते। एक तो उह्नोने संविधान के प्रियेंबल मे सेक्युलर शब्द डाला ही नही था। यह तो इंदिरा गांधी ने आपत्काल में छल से संविधान में जोडा। कारण उह्ने अपनी काली करतूतों के लिए CPI की सहायता आवश्यक थी। संविधान निर्माता तो देशभक्त थे। उनको भारत की प्राचीन धरोहर से प्रेम था। इसलिए नन्दलाल बोस जैसे प्रख्यात चित्रकार से संविधान की मूल प्रत में रामायण, महाभारत और उपनिषद् से सम्बन्धित चित्र बनवाये है। संविधान के भाग ५ की सज्जा मे ऋषि के पास बैठकर शिष्य उपनिषदीय ज्ञान प्राप्त कर रहे है ऐसा दिखाया गया है। यदि उपनिषदों से (जो वेदों का हिस्सा है) पथ्य होता तो ऐसा क्यों होता ?
बात संस्कृत की लीजिये। संविधान मान्य २२ भाषाओं की सूची मे पहले दिन से ही संस्कृत है। उसे बाद मे नही जोडा है जैसीे कुछ अन्य भाषाएं जुडी है। हिन्दी को यद्यपि राजभाषा कहा गया है फिर भी आगे जोडा है कि हिन्दी नयी विकासनशील भाषा होने के कारण उसके विकास का आधार संस्कृत होना चाहिए।
संसद भवन में जहाँ तहाँ संस्कृत मे बोध वाक्य लिखे हैं। जैसे लोकसभा के सभापति के आसन के पीछे "धर्मचक्रप्रवर्तनाय" लिखा है। इन वाक्यों को लेकर पूर्व राज्यसभा सदस्य एवं पूर्व मुख्य न्यायाधीश (हरियाणा और पंजाब उच्च न्यायालय) राम ज्याईस ने एक पुस्तक लिख डाली है। भारत सरकार के अधिवक्ता ने न्यायालय मे ठीक ही प्रश्न किया कि क्या इन सब को भी बदलेंगे ?
संस्कृत के बिना तो भारतीय भाषाओं की कल्पना भी नही की जा सकती। यदि संस्कृत के शब्दों को इन भाषाओं से हटाया जायेगा तो सब पंगु बन जायेंगी। संस्कृत को हटाना है तो लायेंगे किसको, इसका उत्तर भी वादी ने न्यायालय में देना चाहिए।
भारतीय शिक्षा को राजनीति से परे रखना चाहिए था। किन्तु विदेशों के नकलची होने के कारण हमने उसे सरकार के अधीन कर दिया। सरकार ने उसे अभारतीय समाज निर्माण करने का उपकरण माना। १९९५ मे हमने विश्व व्यापार संघटन के सदस्य बनने के कारण शिक्षा को सेवा उद्योग घोषित किया। परिणाम यह हुआ कि जो समाज सेवा का पवित्र साधन माना जाता था वह अब धन कमाने का माध्यम बन गया। ऐसे मे शिक्षा और संस्कार पक्ष तो दुर्बल होना ही था। उसका परिणाम है इन उलजलूल बातों को महत्व मिलना। अब अनावश्यक बातों मे न्यायालय का बहुमूल्य समय बीतेगा।