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जनसंख्या नियंत्रण विकास की जरुरत

जनसंख्या नियंत्रण विकास की जरुरत : आलोक कुमाररांची, 04 सितम्बर : मानव आर्थिक विकास का केंद्र भी है और विकास का उपभोग करने वाला अंतिम उपभोक्ता भी। साम्यावस्था में वह संसाधन है किंतु अतिरेकता की स्थिति में बोझ भी बन जाता है। भारत के सापेक्ष में जनसंख्या ने अपने अनुकूलतम स्तर को पार कर लिया है और धीरे-धीरे यह बोझ बनने की दिशा में अग्रसर हो रहा है।

संयुक्त राष्ट्र की जनसंख्या आधारित रिपोर्ट के अनुसार 2027 तक भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए सबसे अधिक आबादी वाला राष्ट्र बन जाएगा। इस रिपोर्ट में भारत को नाइजीरिया, कांगो, इथियोपिया, तंजानिया, मिस्र जैसे राष्ट्रों की श्रेणी में रखा गया है जहां जनसंख्या विस्फोट की प्रबल प्रवृत्ति है। इस सूची में भी भारत को शीर्ष स्थान पर रखा गया है। रिपोर्ट के अनुसार 2019 से 2050 के मध्य भारत की जनसंख्या में 273 मिलियन की वृद्धि होने की संभावना है।

भारत जैसे विकासशील और कम आय वाले राष्ट्र में जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि पूंजी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता को कम करके उत्पादन कम करती है। इसलिए जनांकिकीय-अर्थशास्त्रियों का यह मानना है कि भारत में जनसंख्या विस्फोट की समस्या ने आर्थिक नियोजन और विकास की सफलता में एक बाधा उत्पन्न किया है।

जनसंख्या विस्फोट और आर्थिक विकास परस्पर विरोधी हैं

प्रकृति प्रदत्त संसाधन सीमित हैं। उनका अत्यधिक दोहन पर्यावरणीय विषमता को बढ़ाते हैं। जनसंख्या की वृद्धि से उपभोक्ता मांगों में बेतहाशा वृद्धि होती है, जिसके कारण तीव्र गति के आर्थिक क्रियाकलापों की आवश्यकता होती है। आर्थिक क्रियाकलापों का भुगतान प्रकृति द्वारा ही किया जाता है, फलतः पारिस्थितिक संतुलन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अर्थशास्त्रियों की गणना के अनुसार भारत में उत्पादकता अनुपात 4:1 है, जबकि देश की जनसंख्या वृद्धि दर 1.8 है। इसका अभिप्राय यह है कि वर्तमान आर्थिक स्तर को बनाए रखने के लिए 7.2% (4 x 1.8) वार्षिक विकास दर की आवश्यकता होगी। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि उक्त 7.2% की आर्थिक वृद्धि केवल वर्तमान स्तर को स्थिर रखने के लिए है। राष्ट्र के समग्र विकास हेतु या तो विकास दर को इससे ऊपर ले जाना होगा या फिर जनसंख्या वृद्धि की वर्तमान दर को नियंत्रित करना होगा।

जनसंख्या की संरचना विकास के सबसे महत्वपूर्ण घटक ‘पूंजी निर्माण’ को बाधित करता है। भारत जैसे विकासशील राष्ट्र में चिकित्सकीय क्षेत्र की आशातीत सफलता ने मातृत्व मृत्यु- दर और शिशु मृत्यु- दर को कम किया है। यहाँ जीवन- प्रत्याशा में भी वृद्धि हुई है। इसके कारण भारत में आश्रित आबादी के समूहों (14 वर्ष से कम तथा 60 वर्ष से अधिक की जनसंख्या) में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। भारत के जनगणना आंकड़ों के अनुसार देश की 35% जनसंख्या 14 वर्ष से कम है अर्थात ये आश्रित जनसंख्या हैं, जिसमें समय के साथ वृद्धि की प्रवृत्ति है। आश्रित समूह की वृद्धि से बचत की क्षमता कम होती है, फलतः पूंजी निर्माण क्षमता का ह्रास होता है और आर्थिक विकास पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसे उदाहरण से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता। है।1950 से 1980 के मध्य में भारत के सकल राष्ट्रीय आय में 3.6% की वार्षिक वृद्धि हुई किंतु इसी समयावधि में प्रति व्यक्ति आय में केवल 1% की वृद्धि हुई। इसका कारण यह था कि इस दौरान देश की जनसंख्या में 2.5% की वार्षिक वृद्धि दर्ज की गई।

जनसंख्या वृद्धि और खाद्यान्न की समस्या

जनसंख्या में तीव्र वृद्धि खाद्यान्नों की समस्या को दो रूपों में प्रभावित करती है। पहला देश की कृषि योग्य सीमित भूमि है जिसको निशित सीमा से अधिक विस्तार नहीं किया जा सकता । इसके विपरीत जनसंख्या में गुणात्मक वृद्धि की प्रवृत्ति है। अधिक जनसंख्या और सीमित खाद्यान्न  जनसंख्या के वृहद भाग के लिए खाद्यान्न आपूर्ति की अनुपलब्धता की स्थिति बनाती  है जो उनके स्वास्थ्य और उत्पादकता को कम करती है। उत्पादकता की कमी से प्रति व्यक्ति आय में कमी होती है, और गरीबी का चक्र प्रारंभ होता है।
खाद्यान्न की कमी का दूसरा पहलू यह है कि अत्यधिक जनसंख्या की मांग के अनुरूप खाद्यान्न सुनिश्चित करने हेतु आयात करना पड़ता है। आयात के कारण विदेशी मुद्रा का एक बड़ा हिस्सा इस पर खर्च किया जाता है। स्पष्टतः यह ग़रीबी के दुश्चक्र के रूप में कार्य करता है। इसके कारण देश के विदेशी व्यापार घाटे में वृद्धि होती है जो आर्थिक विकास में बाधक साबित होती है। डॉक्टर चंद्रशेखर के अनुसार यदि भारत की जनसंख्या 1.60 करोड़ बढ़ती है तो इसकी क्षतिपूर्ति के लिए 121 लाख टन अनाज, 1.9 लाख  मीटर कपड़ा, 2.6 लाख घर तथा 52 लाख अतिरिक्त रोजगार की आवश्यकता होगी।

जनसंख्या वृद्धि सामाजिक समस्याओं को जन्म देती है

जनसंख्या की उत्तरोत्तर वृद्धि संतुलित सामाजिक व्यवस्था को भंग कर असंतुलन की स्थिति पैदा करती है। भारत की अधिसंख्य जनसंख्या कृषि एवं कृषि-जनित कार्यों में संलग्न है। ऐसे में जनसंख्या वृद्धि “प्रच्छन्न-बेरोजगारी” की स्थिति बनाती है। प्रच्छन्न बेरोजगारी उत्प्रवास को प्रेरित करते हैं। उत्प्रवास की उत्तरोत्तर वृद्धि ग्रामीण नगरीय समंजसता को बुरी तरह प्रभावित करता है। नगरों में मलिन बस्तियों का विकास इसी उत्प्रवास का एक नकारात्मक परिणाम है। भारत के 7 राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य-प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड उच्च प्रजनन क्षमता वाले राज्य हैं। इन्हीं 7 राज्यों में उत्प्रवास की भी प्रबलता स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, जिसकी करुण परिणति कोरोना काल में ‘घर- वापसी’ के रूप में देखी गई। यह भी उल्लेखनीय है कि ये सातों  राज्य आर्थिक रूप से भी पिछड़े हैं। यहां बेरोजगारी भी उच्च है, शिक्षा का स्तर भी देश के अन्य राज्यों की तुलना में निम्न है। प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता के दृष्टिकोण से ये सभी राज्य देश में अग्रणी हैं। झारखंड, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य खनिज बाहुल्य वाले हैं तो बिहार, उत्तर प्रदेश की भूमि देश की सर्वाधिक उर्वर भूमि में से एक है। बावजूद इसके इन प्रदेशों का पिछड़ापन जाहिर करता है कि उच्च प्रजनन क्षमता वाले इन राज्यों की जनसंख्या वृद्धि ने आर्थिक विकास में अवरोध उत्पन्न किया है और ये प्रदेश समग्र राष्ट्रीय विकास में बोझ सदृश्य  बन गए। इन्हीं कारणों से इन प्रदेशों में भिक्षावृत्ति, बाल-श्रम, मानव तस्करी जैसी अन्य सामाजिक कुरीतियां भी सर्वाधिक मिलती हैं।

उच्च जनसंख्या और पर्यावरणीय असंतुलन

अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि पर्यावरणीय असंतुलन का अहम कारक है। इससे भूमि पर अत्यधिक दबाव पड़ता है जिससे मृदा क्षरण होता है। संसाधनों के अत्यधिक दोहन और संरचनात्मक कार्य (भवन, पथ निर्माण, उद्योग, शहरीकरण) हेतु वनों की कटाई से वातावरण प्रदूषित होता है। इससे  पर्यावरण अवनयन होता है और मौसमी परिवर्तन, भू-तापन, सामुद्रिक  जल- स्तर में वृद्धि , ओजोन-क्षरण, सामुद्रिक- जलस्तर वृद्धि, अम्लीय-वृष्टि, धूम्र और कोहरे आदि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दृष्टिगत होता है। औद्योगिक क्रांति के बाद से वर्तमान समय तक प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से जैव- विविधता पर जो नकारात्मक प्रभाव हुए हैं वह काफी चिंतनीय है और इस नकारात्मक प्रभाव का मूल बेतहाशा जनसंख्या वृद्धि रही है।
हाल के दशक में भारत की प्रजनन क्षमता दर में कमी आई है। केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिणी एवं पश्चिमी राज्य में यह प्रतिस्थापन दर (2.1) से भी कम है। परंतु बिहार, उत्तर-प्रदेश, राजस्थान, मध्य-प्रदेश सरीखे जनसंख्या-बहुल राज्य में कुल प्रजनन दर राष्ट्रीय औसत (2.2) से काफी अधिक है।

जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण आवश्यक है। शिक्षा जनसंख्या नियंत्रण का प्रमुख अवयव है। भारत के जनांकिकी एवं राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार जहां एक निरक्षर महिला औसत 2.9 बच्चों को जन्म देती है, वहीँ साक्षर महिला औसतन 2.1 बच्चों को जन्म देती है। स्नातक या उससे अधिक शिक्षित महिला के लिए यह औसत प्रजनन दर केवल 1.4 है। समग्र शिक्षा विशेषकर महिला शिक्षा को प्रोत्साहित कर जनसंख्या वृद्धि को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। राज्य की कल्याणकारी योजना के लाभार्थियों के चयन में बच्चों की संख्या के आधार पर प्राथमिकता सूची का निर्धारण कर जनसमूह को जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रेरित किया जा सकता है।

प्रकृति और मनुष्य के साम्य-संतुलन और प्राकृतिक परिसंपत्ति के कुशलतापूर्वक प्रबंधन हेतु जन संख्या को सीमित रखना अति आवश्यक है। उच्च गुणवत्तापूर्ण जीवन-निर्वाह के लिए बढ़ती जनसंख्या कि लक्ष्मण-रेखा खींचे जाने कि जरुरत है, अन्यथा जैव-विकास  का वरदान ‘मानव’ स्वयं इसका अभिशाप भी बन सकता है। 

आलोक कुमार ( स्वतंत्र पत्रकार )


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