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रक्त रंजित बंगाल : राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से बेहाल

आशीष कुमार दूबे, राष्ट्रनिष्ठ चिंतक

रक्त रंजित बंगाल : राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से बेहालरांची, 18 मई : 15 अगस्त 1947 को हमारे देश को आजादी मिली और साथ ही सर्वप्रथम विभाजनकारी राजनीति के तहत मोहम्मद अली जिन्ना के इशारों पर बंगाल में खूनी खेल खेला गया, परिणामतः भारत एवं भारत में बंगाल का विभाजन हुआ। पश्चिमी बंगाल का हिस्सा भारत में रह गया और पूर्वी बंगाल पाकिस्तान में चला गया जो बाद में पूर्वी पाकिस्तान कहलाया, अभी का बांग्लादेश है। विभाजन के कारण बंगाल में खून खराबे, विस्थापन और शरणार्थियों की समस्याएं पैदा हुई, तब से लेकर आज तक पश्चिम बंगाल में 8 मुख्यमंत्री रहे जिसमें प्रफुल चंद्र घोष ने प्रधान के रूप में 15 अगस्त 1947 से 22 जनवरी 1948 तक काम किया बाद में बिधान चंद्र रॉय ने भारतीय राष्ट्रीय पार्टी से पश्चिम बंगाल के पहले मुखमंत्री के रूप में 26 जनवरी 1950 को शपथ ग्रहण किए। जिनका कार्यकाल 12 वर्ष 156 दिनों का रहा। जून 1977 में आपातकाल के बाद जब पूरे देश में परिवर्तन की लहर चली तो उसका असर पश्चिम बंगाल में भी देखने को मिला तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वाम मोर्चा ने सत्ता संभाली जो 34 वर्षो तक स्थिरता पूर्वक चली। जिसके पहले मुख्यमंत्री के रूप में ज्योति बसु ने 21 जून 1977 को शपथ ग्रहण किया। इनका कार्यकाल 5 नवम्बर 2000 यानी लगातार 23 वर्ष 137 दिनों तक चला तदुपरांत दूसरे मुख्यमंत्री के रूप में बुद्धदेव भट्टाचार्य ने 6 नवम्बर 2000 को सत्ता संभाली जिन्होंने 10 वर्ष 188 दिनों तक शासन किया। परन्तु आज तक बंगाल की हालात जैसी की तैसी है। आज भी राजनैतिक हिंसा का दौर नहीं थमा एवं राजनैतिक हिंसाएँ होती रहीं। ऐसा लगता है कि, रक्त रंजित बंगाल आज भी राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से बेहाल है।

1950 से 1977 के बीच 5 मुख्यमंत्री बदले और 4 बार राष्ट्रपति शासन लागू हुआ। वहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने 1977 से 2011 तक स्थिरता पूर्वक शासन किया क्युकी ये माओवादियों के दम पर शासन करने वाली पार्टी थी और इनका मानना था कि, हथियारों से ही सत्ता हासिल कर शासन किया जा सकता है और वे भय और आतंक के दम पर सत्ता में बने रहने में सफल भी रहे।

भारत में सर्वप्रथम नक्सलबाड़ी जो आज पश्चिम बंगाल का एक हिस्सा है, जहां से माओवादियों ने अपने प्रभाव का विस्तार किया और वहीं से वह हिंसक राजनैतिक दौर प्रारंभ हुई जो बंगाल ने पहले भी विभाजन के समय देखा था। माओ का ये कथन तो था कि, "जनता एक समुद्र का जल है और हम उस समुद्र में रहने वाले मछली के समान हैं, "जब तक जल का सामर्थ्य रहेगा तब तक हम मछलियां बड़ी तेजी से आगे बढ़ते रहेंगी"। परंतु माओ का यह भी मत था कि, " बड़े सत्ता से लड़ने के लिए हमें हथियारबंद आंदोलन का सहारा लेना पड़ेगा"। इसलिए हथियार के दम पर सत्ता हासिल करने के लिए माओवादियों ने पश्चिम बंगाल में लगातार राजनैतिक हिंसा को जारी रखा। माओवादी नेता अपने हथियार के दम पर जन आकांक्षाओं के पूर्ति का आश्वासन तो देते थे, परंतु राजनैतिक हिंसा में नरपिशाच के रूप यह कहते हुवे कि, "सामंतवादियों को मार कर ही साम्यवाद स्थापित किया जा सकता है", विरोधियों की आवाज को दबाने केलिए राजनैतिक हिंसा करते थे। इसी तरह भारत के पश्चिम बंगाल प्रांत में पहली बार माओवादी संगठन राजनैतिक हिंसा के बल पर ही पूर्ण प्रभाव में आया।

माओवादियों का प्रभाव का विस्तार बंगाल के साथ - साथ छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड एवं अन्य राज्यों के बड़े हिस्सो में हुआ और राजनैतिक हिंसाएं भी हुईं। परंतु अन्य राज्यों में वे सफल नहीं हो सके। खासकर बीजेपी शासित राज्यों में तो, ना तो वे राजनैतिक हिंसा कर सके और ना ही हथियार बंद संगठन का विस्तार कर सके। भारत के पूर्व प्रधान मंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेई जी इनके हिंसक राजनीति पर अंकुश लगाने केलिए टाडा कानून बनाकर इनका मद मर्दन कर दिया।

परंतु बंगाल में उनका सामर्थ्य इस कदर बढा कि, सामंतवादी को मारते मारते वे स्वयं को सामंतवादी बना चुके थे। जिससे बड़े पैमाने पर जन सामान्य सामाजिक नुकसान को महसूस करने लगे एवम् उनका सामाजिक गतिरोध करने लगे। जिससे धीरे - धीरे माओवादियों के विरुद्ध बंगाल में भी आवाज बुलंद होने लगी और बड़े पैमाने पर उनके राजनैतिक प्रभाव का ह्रास हुआ। इसी बीच ममता बनर्जी ने प्रवर्तक के रूप में अपने राजनैतिक प्रभाव का विस्तार तुष्टिकरण की राजनीति एवं अपने कूटनीतियों के आधार पर करने में समर्थ सिद्ध हुईं। परिणाम स्वरूप पश्चिम बंगाल के एक बड़े जनमानस को प्रभावित कर करीब-करीब एक दशक से अधिक अपना शासन स्थापित करने में सफल रहीं। यहां तक पहुंचने में ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस पार्टी के समर्थकों को भी काफी कुर्बानियां देनी पड़ी। परंतु आज तक बंगाल में राजनैतिक हिंसा पर अंकुश नहीं लगाया जा सका।

आज भी पश्चिम बंगाल आकंठ हिंसक राजनीति में डूबा रहा। अलगाववादियों के बाद अतिवादी इस्लामिक जिहादियों, आतंकवादियों एवम् माओवादियों का संयुक्त हिंसक राजनैतिक अभियान पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव 2021 के बाद भी देखने को मिला। जिसमें सुनियोजित राजनैतिक षड्यंत्र के तहत एक वर्ग विशेष को चिन्हित कर तथा तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर अवैध तरीके से भारत में आए रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों, माओवादियों, एवं अतिवादी इस्लामिक जिहादियों के द्वारा लूट ,हत्या, बलात्कार एवं आगजनी जैसी घटनाओं को अंजाम दिया गया। जिसके कारण पश्चिम बंगाल को छोड़कर पश्चिम बंगाल का एक बड़ा वर्ग पलायन करने पर मजबूर हुआ। जिसे देख पूरा देश दहल उठा और केंद्र सरकार से पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू कर बंगाल में हो रही हिंसा को नियंत्रित करने की मांग देश के कोने-कोने से उठने लगी।

इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि, ममता बनर्जी माओवादियों के खिलाफ एक मजबूत सरकार बनाने में सफल तो रही, परंतु तुष्टिकरण की राजनीति एवं लंबे समय तक सत्ता में बने रहने की लोलुपता में बंगाल की राजनैतिक हिंसा पर अंकुश नहीं लगा सकीं, बल्कि बंगाल की पौराणिक संस्कृति एवं राजनैतिक संस्कार को ताक पर रखकर रक्त रंजित बंगाल की भूमि पर रक्तपात जारी रखीं।

पहली बार पश्चिम बंगाल की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी व्यापक प्रभाव डालने में सफलता के करीब दिखाई दी। ज्ञात हो कि, जिन-जिन क्षेत्रों /राज्यों में भारतीय जनता पार्टी सरकार में आई उन-उन राज्यों में वामपंथ एवं माओवादियों के पैर उखड़ गए। इसलिए भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से रोकना वामपंथियों व माओवादियों के लिए एक चुनौती तो था ही, साथ ही साथ तृणमूल कांग्रेस पार्टी एवं अन्य विपक्षी दलों ने भी भाजपा को रोकने के लिए एक राय होकर राजनैतिक ध्रुवीकरण का एक उदाहरण गढ़ते हुवे ममता बनर्जी को शासन में लाने में अपना-अपना महत्वपूर्ण योगदान दिए। इसके बावजूद भी, इस बार भारतीय जनता पार्टी एवं उसके शीर्ष नेता और कार्यकर्त पहली बार एक चरणबद्ध आंदोलन और कठिन परिश्रम के बल पर बंगाल में सकारात्मक कार्य किए एवं 2021 के चुनाव में बंगाल में पूर्ण बहुमत की सरकार बनने का प्रयास किए। परिणामतः भाजपा पहली बार पश्चिम बंगाल में मजबूत विपक्ष के रूप के स्थापित हुई।

विदित हो कि भाजपा शासित भारत सरकार ने सिटीजन अमेंडमेंट एक्ट 2019 (CAA) लाया जो भारत से कट कर बने इस्लामिक देश के धार्मिक रूप से प्रताड़ित गैर मुसलमानों को जो धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत में 31 दिसंबर 2014 के पूर्व से शरणार्थी के रूप रह रहे हैं, उनको भारत की नागरिकता देने से संबंधित है। अगर हम सिटिजन एक्ट 1954 एवं सिटीजन अमेंडमेंट एक्ट 2019 का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि, जिन प्रताड़ित गैर मुस्लिम शरणार्थियों को 11 वर्ष बाद भारत का नागरिकता प्राप्त होना था, उन्हें सिर्फ 5 वर्षों का लाभ मिला है। जिसका किसी भी प्रकार का कोई दुष्प्रभाव भारतीय जनता एवं मुसलमानों पर नहीं पड़ने वाला है। इसके बावजूद भी ममता बनर्जी एवं अन्य सरकार के विपक्षी राजनैतिक दल, अवैध बांग्लादेशी एवं रोहिंग्या घुसपैठियों से मिलकर मावोवादियों के साथ शक्तिपूर्वक विरोध किया, जो तुष्टीकरण का एक बड़ा घिनौना उदाहरण है, साथ ही साथ एनआरसी जो घुसपैठियों के विरुद्ध सरकार का एक बड़ा पहल है, जो अभी विचाराधीन है। उसका भी विरोध इन सब ने सख्ती से बलपूर्वक करने का प्रयास किया है। अगर हम उक्त दोनों विरोध प्रदर्शन का सूक्ष्मता से अवलोकन करें तो पाएंगे कि, वाम मोर्चा, टीएमसी, कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दल अप्रत्यक्ष रूप से अवैध बांग्लादेशी एवं रोहिंग्या घुसपैठियों की हिमाकत करते दिखें हैं। ताकि तुष्टीकरण की राजनीति और घुसपैठियों का अवैध वोट बैंक बना रहे, जो हमारे देश और संविधान के लिए एक बड़ा खतरा है।

चूंकि राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भारत में हो रहे अवैध घुसपैठ को रोकने हेतु भाजपा शासित केंद्र सरकार के लिए पश्चिम बंगाल में सरकार बनाना एक बड़ी चुनौती थी। इसलिए भाजपा के शीर्ष नेता और कार्यकर्ता गण 2021 विधानसभा चुनाव में कठिन परिश्रम किये, परंतु सरकार बनाने में असमर्थ रहे। परिणाम स्वरूप भाजपा अप्रत्याशित बढ़त बनाते हुये 77 सीटों के साथ एक मजबूत विपक्ष के रूप में आई। यह भी बताते चलें कि 2021 विधान सभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जो लगातार तीसरी बार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनी, खुद अपना एक सीट बीजेपी के एक प्रत्यासी से हार गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि, पश्चिम बंगाल की जनता भी अब हिंसक राजनीति और आतंकवाद के प्रभाव से मुक्त होकर प्रगति की राह तलाशने के लिए कटिबद्ध है।

हम निःसंदेह यह कह सकते हैं कि, भाजपा के अप्रत्याशित बढ़त से बौखलाए वामपंथी नेता एवं टीएमसी के नेता एकमत होकर अवैध रोहिंग्या एवं बांग्लादेशी घुसपैठियों और अतिवादी इस्लामिक जिहादियों के मदद से सुनियोजित षड्यंत के तहत "चूंकि भारत में संवैधानिक रूप से चुनाव के समय एवं सरकार बनने के पहले तक पश्चिम बंगाल में चुनाव आयोग का शासन था", इसलिए इसी समय को लक्ष्य बनाकर राजनैतिक हिंसा को अंजाम दिया। ताकि, केंद्र सरकार अफरातफरी में राष्ट्रपति शासन लाने की दिशा में सोंच भी न सके।

पश्चिम बंगाल के जिस वर्ग ने संविधान के भाग 3, आर्टिकल 12 से 35 में निहित मौलिक अधिकारो का इस्तेमाल करते हुए अपनी इक्षा से बीजेपी को समर्थन दिया, उन्हें राजनैतिक हिंसा को बढ़ावा देने वाले रक्त पिशाचों द्वारा चिन्हित कर हिंसक तरीके से उनके पूरे परिवार के साथ निशाना बनाकर पलायन करने पर मजबूर कर दिया गया। जिसके कारण भारत के सामाजिक चिंतक, मीडिया कर्मियों एवम् सोशल मीडिया के कार्यकर्ताओं द्वारा बड़े पैमाने पर बंगाल में भारतीय संविधान की अनुच्छेद 356 में प्रदत्त शक्ति का प्रयोग कर केंद्र सरकार द्वारा पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लागू कर शांति व्यवस्था बहाल करने की करने की मांग की जाने लगी। चूंकि पश्चिम बंगाल में उस समय सरकार चुनाव आयोग के हाथ में थी और अगर भारत सरकार उस समय अफरातफरी में राष्ट्रपति शासन लागू कर देती तो संवैधानिक तरीके से ममता बनर्जी एवम् उनके सहयोगी केंद्र के उस फैसले के विरुद्ध संबंधित उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के समक्ष याचिका दायर करके सरकार बनाने में समर्थ हो जाती। इसलिए केंद्र सरकार ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 256 में प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए पश्चिम बंगाल सरकार को शांति व्यवस्था बहाल करते हुये हिंसा से संबंधित रिपोर्ट सौंपने का निर्देश दिया और साथ ही साथ 4 सदस्यीय समिति भी बनाकर पश्चिम बंगाल में हुई हिंसा से संबंधित जांच स्थल निरीक्षण कर करा रही है।

रक्तरंजित बंगाल का यह नजारा देखते हुवे तथा तमाम विरोधों को झेलते हुवे भी 2021 विधानसभा चुनाव के बाद पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के रूप ममता बनर्जी ने शपथ तो लिया, परंतु अभी तक पश्चिम बंगाल में ना तो शांति व्यवस्था बहाल हो सकी और ना ही केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति शासन लागू करने का प्रयास की, जिसके कारण छिटफुट हिंसक घटनाएं अभी भी घाटित हो रही है।

चूंकि पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने स्थल निरीक्षण कर बड़ी भारी मन से सरकार, शासन और प्रशासन को धिक्कारते हुये यहां तक कि पत्रकारों को भी उनके कर्तव्यों का बोध कराते हुये पश्चिम बंगाल की जनता की दुर्दशा, आतंक और भयपूर्ण वातावरण के सम्बन्ध में सम्पूर्ण राष्ट्र को अवगत कराया। इसके बावजूद भी केंद्र सरकार द्वारा पश्चिम बंगाल की जनता के इस त्रासदी पर अंकुश लगाने केलिए कोई कठोर कदम नहीं उठाया गया। मुझे लगता है कि या तो अभी तक केंद्र सरकार के समक्ष पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा हिंसा से संबंधित कोई रिपोर्ट ही नहीं सौंप गया और ना ही सरकार के निदेशों का अनुपालन किया गया। लिहाजा बंगाल में आज भी छिटफुट हिंसक झड़प नित्य निरंतर हो ही रही हैं और आतंक का वातावरण बना हुआ है। जिससे पश्चिम बंगाल की जनता के भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों एवं राष्ट्रीय सुरक्षा पर बड़ा संकट प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है।

इसलिए भारत सरकार को चाहिए कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 365 में प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग कर केंद्र सरकार द्वारा दिये गये संवैधानिक निर्देशों का पालन नहीं करने की स्थिति में राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करते हुये उक्त हिंसा को अंजाम देने वाले अपराधिक एवं आतंकी प्रवृति के तत्वों को चिन्हित कर उनके विरुद्ध कठोरतम कार्रवाई करे। जिससे तात्कालिक रूप से पश्चिम बंगाल में शांति व्यवस्था बहाल हो स।

जहां तक मेरा मानना है कि, जिस प्रकार कश्मीर का एक भाग "लद्दाख" के अंतराष्ट्रीय संबंधों एवं चीन के विस्तारवादी नीतियों पर अंकुश लगाने हेतु "लद्दाख" को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया, ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय सुरक्षा एवं स्थाई शांति व्यवस्था को ध्यान में रखते हुवे केंद्र सरकार भारतीय संविधान का अनुच्छेद-3 के माध्यम से संसद को प्राप्त नए राज्य के गठन से संबंधित शक्तियों का प्रयोग कर चुकी कलकत्ता के अंग्रेजों के शासन काल से आज तक अंतर्राष्ट्रीय संबंध रहे हैं एवं पश्चिम बंगाल के अन्य क्षेत्र जो बांग्लादेश के सीमा से सटे हुये हैं तथा अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों को प्रभावित करते हैं, इन क्षेत्रों को केंद्र शासित प्रदेश बनाते हुये तथा गोरखा लैंड जो सामाजिक, सांस्कृतिक एवं भागौलिक दृष्टिकोण से बंगाली संस्कृति से भिन्न है तथा वहां की स्थानीय जनता लगातार अलग राज्य की मांग करती आ रही है। उसे भी पश्चिम बंगाल से अलग स्वतंत्र राज्य बना दिया जाए। जिससे अंतर्राष्ट्रीय संबंध एवं राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ साथ घुसपैठ पर भी अंकुश लगाया जा सके। ऐसा करने से पश्चिम बंगाल में चिर काल तक शांति व्यवस्था बहाल की जा सकती है तथा उन क्षेत्रों में प्रगति की एक नई राह भी प्रशस्त हो सकती है।

(लेखक गढ़वा व्यवहार न्यायालय में अधिवक्ता हैं। यह लेखक के अपने विचार हैं)


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