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अनुच्छेद 342 में संशोधन क्यों आवश्यक है ?

डॉ.मन्ना लाल रावत

रांची, 27 अक्टूबर :सन् 1935 के भारत सरकार अधिनियम में भारतीय ईसाई वे जन समूह हैं जिन्होंने जनजातियों की जीवन पद्धति को छोड़ दिया व धर्म परिवर्तन कर लिया। उनकी गिनती बराबर से भारतीय ईसाइयों में होती रही और इन्होंने अल्पसंख्यकों के विशेष अधिकारों का भी लाभ उठाया।

चौथी लोकसभा के दौरान वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एवं जनजाति समाज के संसद में प्रतिनिधि डॉ कार्तिक उरांव ने जनजातियों की लोकतंत्र में पीड़ा को जाना और अपने भाव कुछ यूं व्यक्त किए - "भारत के वनों में कराहती आवाज को स्वतंत्र भारत पहचान नहीं सका। देश की कठोर भौगोलिक परिस्थितियों में जनजातियों के साथ ऐतिहासिक रूप से हुए शोषण को कोई पहचान नहीं सका। हरिजनों, मुसलमानों, सिखों और ईसाइयों का प्रतिनिधित्व भारतीय संसद एवं लोकतंत्र में पर्याप्त एवं उचित रहा, लेकिन जनजातियों के लिए इनमें औचित्य और मानवता नहीं जगी।"

कार्तिक बाबू का संवेदनशील मन उन्हें इस और जागृत करता रहा। अब सवाल है कि वे (जनजातियां) रहें अथवा सदा के लिए विलीन हो जाएं? अभी जनजातियां चौराहे पर हैं। मुड़ें तो किधर? जिधर भी मुड़े, एक लंबे अरसे तक उनका शोषण तो होता रहा और नुकसान भी काफी हुआ, जिसे मैं विस्तार पूर्वक अंकित नहीं कर सकता। फिर भी आप अगर जनजाति हो, तो चेतना आवे और गैर-जनजाति हो, तो आप में मानवता जगे। मेरी यही कोशिश सदा रहेगी।

ये भाव शब्द किसी और के नहीं बल्कि जनजातियों के आंबेडकर डाॅ कार्तिक उरांव के हैं। जनजातियों की संवैधानिक परिभाषा में धर्मांतरित ईसाइयों को रखे जाने की वैधानिक स्थिति को वे प्राकृतिक, संविधानिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से गलत मानते हुए इसे ठीक करने के संबंध में वे अपनी पारखी बुद्धिमत्ता और स्पष्ट चिंता व्यक्त कर रहे थे। वे इस निमित्त वास्तविक जनजातियों के शोषण के विरूद्ध एक संवैधानिक, संसदीय और अपने ही सर्वोच्च नेतृत्व से जनजातियों की एक ऐतिहासिक लड़ाई लड़ रहे थे।

जनजातियों का धर्म

यह सही है कि भारत के संविधान में जनजातियों के धर्म का उल्लेख नहीं है, परंतु क्या यह सही नहीं है कि जनजातियां देवी-देवताओं की पूजा इसलिए करते हैं ताकि फसल अच्छी हो ? बकरी और मुर्गी की बलि इसलिए चढ़ाते हैं कि ताकि देवता खुश हो ? नदी, पहाड़ और जंगलों में वास करने वाले सभी देवी-देवताओं में विश्वास करते हैं, अपने कुल देवी देवताओं को पूछते हैं और अपने सबसे बड़े आदिदेव को वे कभी वे बड़ा देव कहते हैं, कभी महादेव। कभी गवरी रमते हैं तो कभी धाम धूणी जगाते हैं।

सभी जनजातियां भारत की संस्कृति में सनातनी हैं। सनातनी संस्कृति की आगम धारा जो आदि काल से निरंतर बहती आई है, के प्रवर्तक जनजाति ही तो हैं। महारानी दुर्गावती और राणा पूंजा भील के क्षात्र-धर्म के अनुरूप जीवन पद्धति ही तो जनजातियों का धर्म है। क्या इस बात को भारतीय लोकतंत्र में स्वीकार नहीं किया जाएगा? या सब कुछ राजनीतिक की हवा में ही रहने के लिए छोड़ दिया जाएगा? ये प्रश्न कार्तिक बाबू के संवेदनशील, न्यायकारी और समावेशी विकास के पथ प्रदर्शक दिमाग में खूब चलते रहे।

भारतीय ईसाई कौन और जनजातियों का क्या वास्ता ?

सन् 1935 के भारत सरकार अधिनियम में भारतीय ईसाई वे जन समूह हैं जिन्होंने जनजातियों की जीवन पद्धति को छोड़ दिया व धर्म परिवर्तन कर लिया। उनकी गिनती बराबर से भारतीय ईसाइयों में होती रही और इन्होंने अल्पसंख्यकों के विशेष अधिकारों का भी लाभ उठाया।

सन् 1952 तक भारतीय ईसाई निर्वाचन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते रहे जो कि उनके लिए ही औपनिवेशिक अंग्रेजी सरकार ने पृथक से निर्मित किए थे। इसे और स्पष्ट करने के लिए जाने-भारतीय ईसाई वह समूह हैं जो किसी प्रकार से ईसाई धर्म को मानते हैं और जो एंग्लो-इंडियन या यूरोपियन नहीं है। भारतीय ईसाई निश्चित रूप से धर्मांतरित जनजातियां ही हुई, जिन्होंने अब आधी धर्म पथ छोड़ दिया।

भारतीय संसद (संविधान निर्मात्री सभा) के निर्णय अनुसार 11 मई, 1949 की बैठक में भारतीय ईसाइयों सहित सभी अल्पसंख्यकों के लिए विधानमंडल में आरक्षण की प्रथा समाप्त कर दी गई। इस प्रकार 1935 के अधिनियम के तहत विधानसभा में धर्मांतरित जनजाति के लिए आरक्षण समाप्त कर दिया गया। संसद का यह निर्णय स्वरुप में लागू किया जाना था।

अनुसूचित जनजाति, धर्म और आरक्षण

स्वतंत्र भारत की हमारे संविधान के अनुसार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों को संविधान के उद्देश्य के लिए आरक्षण और संरक्षण की व्यवस्था की गई।

अनुसूचित जाति (SC) में उन सभी जातियों, कुटुंब और ऐसे समूह को रखा जो हिंदू धर्म छोड़कर नहीं गए हो अर्थात हिंदू धर्म को मानने वाली जातियां ही अनुसूचित जातियां कहलाएंगी।परंतु दुर्भाग्य से अनुसूचित जनजातियों (ST) की विधायी व्यवस्था में यह कमी छोड़ दी गई, क्योंकि जनजातियों के पास संविधान निर्माण के दौरान कोई बड़ा नेता नहीं था (जो कुछ थे वे भी औपनिवेशिक शासन और ईसाई मिशनरी की रीति-नीति से प्रभावित है), जबकि अनुसूचित जातियों के पास बाबासाहेब आंबेडकर सहित काफी बड़े-बड़े नेता थे।

जनजातियों की संविधानिक परिभाषा में धर्म का उल्लेख नहीं है। इस कारण धर्मांतरित जनजातियां जो कि भारतीय ईसाई (1931 की जनगणना के अनुसार अल्पसंख्यक) भी है, अनुसूचित जनजातियों में ही जमी रही और संविधान के उद्देश्य के लिए ST के आरक्षण और संरक्षण पर ये कुंडली मार कर बैठ गये।

संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के तहत त्रि-आयामी न्याय और शोषण से मुक्ति के लिए महामहिम राष्ट्रपति की ओर से जारी होने वाली अधिसूचना में क्या यह गंभीर विसंगति जनजातियों के प्रति एक घोर व जीवंत दुर्भाग्य नहीं है?

डॉ कार्तिक उरांव ने लगातार कोशिश की कि अनुसूचित जातियों की भांति अनुसूचित जनजातियों में भी धर्मांतरित लोग नहीं रहें अर्थात वे व्यक्ति या समुदाय जिन्होंने सनातनी और सहज जनजाति जीवन शैली को छोड़ दिया हो, संस्कृति को छोड़ दिया हो उन्हें अनुसूचित जनजातियों की संवैधानिक परिभाषा से बाहर किया जाए। इनमें मुख्य रूप से भारतीय ईसाई शामिल थे।

विषय की जानकारी में आने के बाद और शासकीय स्तर पर हस्तक्षेप के उपरांत संघ एवं कई राज्य सरकारों के स्तर पर कुछ सतही प्रयास किए गए परंतु लगन के धणी कार्तिक बाबू ने अपने अध्ययन में पाया कि भारतीय क्रिश्चियन लोग अनुसूचित जनजाति की सूची में रहने के दिखावे तौर पर विरोधी है और विभिन्न स्तरों की सरकारों की मौन सहमति तथा (हकदार) जनजातियों की अज्ञानता के कारण भारतीय ईसाइयों जनजातियों के कल्याणकारी विशेषाधिकारों का बहुत बड़ा भाग खुलेआम हड़प रहे हैं।

उनके अनुसार अखिल भारतीय सेवाओं में ईसाइयों का प्रतिनिधित्व दो तिहाई से अधिक था जबकि उनकी जनसंख्या ST में मात्र 5% थी। इसी प्रकार राज्य सेवाओं, छात्रवृत्ति व एनजीओ के लिए वितरित राशि में वे अपनी संख्या के विरुद्ध कई गुणा सुविधाएं हड़प रहे थे।

कल्याण के कार्य के लिए 6% ईसाइयों द्वारा 96% जनजातियों के प्रति यह दोहरा, खतरनाक व वंचना तंत्र निर्मित कर दिया था। उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि भारत सरकार के स्तर पर प्रतिवर्ष जनजातियों के लिए ₹74 पैसा खर्च होता है जबकि एक ईसाई के कल्याण के लिए ₹255 खर्च हो रहा था। भारतीय ईसाई ना केवल जनजातियों की बल्कि अल्पसंख्यकों की सुविधाएं भी ले रहे थे। यह घोर विसंगति नहीं तो और क्या था?

धर्मांतरित जनजातियों को एसटी से बाहर करने के लिए कार्तिक उरांव का ऐतिहासिक विधायी प्रयास (Bill)

जनजाति संस्कृति और उनकी सहज जीवन शैली से बाहर निकलकर ईसाई आदि बन चुके जनजाति व्यक्तियों और समुदायों को एसटी की सूची से बाहर करने के लिए संसद की एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया।

इस समिति में डॉ कार्तिक उरांव की अग्रणी भूमिका थी। इस दल द्वारा किए गए विस्तृत अध्ययन उपरांत दिए गए सुझावों के आधार पर 10 जुलाई, 1967 को लोकसभा में एक विधेयक (Bill) प्रस्तुत किया गया जिसमें यह कहा गया -

"किसी बात के होते हुए कोई भी व्यक्ति जिसने जनजाति आदि मत तथा विश्वास का परित्याग कर दिया हो और ईसाई या इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया हो वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं समझा जाएगा।"

कुछ समस्याएं कहां जल्दी पीछा नहीं छोड़ती हैं? वे अपने कुनबे को भी हमारे सामने खड़ा कर देती है। यही हुआ इस बिल के साथ। तत्कालीन केंद्र सरकार ने एक वर्ष तक इस बिल पर कोई चर्चा नहीं की। इस बीच देश के कोने-कोने से ईसाई मिशन केंद्र सरकार पर दबाव बनाने लगे। नहीं तो कभी नहीं और मत चुके चौहान की नीति पर चलने वाले डॉ कार्तिक उरांव ने लोकतंत्र के मंदिर का सहारा लिया। उनके द्वारा दिए गए प्रखर व अकाट्य तर्क और जनजातियों के कल्याण की व्यापक व गंभीर चर्चा उपरांत 348 संसद सदस्य जिसमें 222 लोकसभा से और 26 राज्य सभा से थे, के हस्ताक्षर से तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को स्मारक पत्र दिया कि वे इस सिफारिश को इसलिए समर्थन प्रदान करें क्योंकि इसके साथ करीब तीन करोड़ अनुसूचित जनजातियों के जीवन मरण का सवाल है।

इस दबाव के चलते सरकार ने 16 नवंबर, 1970 को लोकसभा में बहस शुरू की। देश में कार्यरत ईसाई मिशनरियों व उनके चहेते जनप्रतिनिधियों के दबाव के चलते 17 नवंबर, 1970 को भारत सरकार की ओर से संशोधन आया कि संयुक्त संसदीय समिति की सिफारिश विधेयक से हटा ली जाये। अर्थात तत्कालीन सरकार चाहती थी कि धर्मांतरित लोग अनुसूचित जनजाति में बने रहे। इस पर माननीय डाॅ कार्तिक उरांव ने 24 नवंबर, 1970 को लोक सभा में 55 मिनट के अपने ऐतिहासिक, तर्कसंगत और भावपूर्ण उद्बोधन में कहा- मैंने इतना ही कहा है कि या तो आप संयुक्त समिति की सिफारिश कोहटा दें या मुझे इस दुनिया से हटा दें।

आदरणीय कार्तिक बाबू के इस उद्बोधन और भाव से लोकसभा में भारी सन्नाटा रहा। ऐसा लग रहा था कि पूरा देश और लोकतंत्र हम जनजातियों के समर्थन में था परंतु ईसाई मिशनरियों के दबाव के कारण तत्कालीन भारत सरकार हमारे साथ नहीं थीं।

सरकार ने बाद में कहा संसद के अगले सत्र में इस बिल पर बहस करेंगे परंतु दुर्भाग्यवश 27 दिसंबर, 1970 को लोकसभा भंग हो गई और जनजातियों का उज्जवल भविष्य पुनः अंधकारमय हो गया। इस संदर्भ में डॉ कार्तिक उरांव की पुस्तक "बीस साल की काली रात" को पढ़ने से हम महसूस करते है यही दु:खद अंत है जनजातियों की नई रोशनी का। सोचो! तब कैसा लगा होगा आदरणीय कार्तिक बाबू और उनके जीवन उद्देश्य को? यहां यह नहीं लगता कि सरकार, संविधान की धारा 15(1) के अनुसार धर्म, कुटुंब, भाषा, जाति, लिंग, उत्पत्ति के स्थान या इनमें से किसी एक के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होने देने के सिद्धांत के विपरीत जनजाति क्षेत्र में धर्म परिवर्तन का कार्य करने वाले ईसाइयों के दबाव में आ गई।

पढ़े-लिखे सामान्य बुद्धि वाले जनजाति बंधुओं और जनजातियों के कल्याण चाहने वाले संवेदनशील नेतृत्व को बस इस बात को भी ध्यान रखना होगा कि इस घटना के बाद कैथोलिक मिशन की पत्रिका ने जून 1970 में लिखा-अनुसूचित जनजाति की सूची में ना रहने देने से उनके धर्म प्रकाशन एवं प्रसारण में बाधा होगी।

क्या संविधान के अनुच्छेद 342 के तहत अनुसूचीकरण धर्म प्रचार के लिए हुआ है या सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय की स्थापना के लिए? संविधान के अनुच्छेद 342 की परिभाषा के लिए डॉ कार्तिक उरांव के प्रयास और उक्त संदर्भ में न्याय हेतु रीति, नीति और कार्यप्रणाली का यह कार्य अब तक दुर्भाग्यपूर्ण रहा है।

अनुसूचित जनजातियों की परिभाषा तथा उन्हें सूचीबद्ध करने के सिद्धांत एवं नीति में एकरूपता लाने और अब तक आ रही विसंगतियों को दूर करने के लिए भारत सरकार ने 1965 में लोकुर कमेटी का गठन किया गया था। समिति द्वारा 1931 की जनगणना Primitive Tribes तथा 1935 के अधिनियम के तहत बैकवर्ड ट्राइब की परिभाषा एवं इसकी मानदंडों को बारीकी से जांचा एवं यह तय किया कि अनुसूचित जनजातियों का सूचीकरण का मुख्य आधार सामाजिक संगठन एवं सामान्य जीवन पद्धति है। इन सभी मानकों को संकलित करते हुए उनके द्वारा 5 मानक दिए गए जिसमें तीन मानक सामाजिक-सांस्कृतिक होकर अत्यंत महत्वपूर्ण हैं-

एक, आदिम विशेषताओं के संकेत;
दो, विशिष्ट संस्कृति तथा
तीन, बड़े पैमाने पर समुदाय के साथ संपर्क में संकोच।

ये तीनों मानक अनुसूचित जनजातियों की विशिष्ट पहचान दिलाते हैं। लोकुर समिति ने अपने प्रतिवेदन में निम्नलिखित तथ्य व्यक्त किए हैं- We have considered that tribes whose members have by and large mixed up with the general population are not eligible to be the list of Schedule Tribes

कमेटी के निष्कर्ष का मर्म है-सहज जनजाति जीवन पद्धति (आदि पथ) को छोड़ने वाले जनजाति समूह ने अब ईसाई पंथ या मुस्लिम पंथ अपना लिया है, वे विशिष्ट जनजाति संस्कृति से पृथक हो चुकी हैं। अब वे आदि धर्म पथ पर नहीं है। 1967 में लोकसभा में प्रस्तुत विधेयक एवं लोकुर कमेटी का मत है कि जो आदि धर्म पथ पर नहीं रह गये, वे संविधानिक उद्देश्य के लिए अनुसूचित जनजाति भी नहीं हो सकते।

हमारे राष्ट्र में सभी अंतर्राष्ट्रीय सीमा और देश के महत्वपूर्ण सामरिक महत्व के स्थानों पर निवासरत 9 करोड़ से अधिक जनजातियों के विकास के मानक अंतिमों में भी अंतिम स्थान पर है।

अब समय है कि उनका अंत्योदय से भाग्योदय करना होगा। इस हेतु संविधान के उद्देश्य के लिए अनुसूचित जनजातियों की पहचान के लिए स्थापित मानदंडों में विशिष्ट सांस्कृति को संविधान में ही परिभाषित किया जाना चाहिए एवं कार्तिक बाबू तथा लोकूर कमेटी के सिद्धांतों व तथ्यों को संबद्ध करते हुए संविधान के अनुच्छेद 342 के उद्देश्य के लिए संपूर्ण नया निर्णय लिया जाना चाहिए जो अनुसूचित अनुच्छेद 341 के अनुरूप होगा अर्थात जिन्होंने सनातन धर्म-संस्कृति को छोड़ दिया है, वे अनुसूचित जाति नहीं हैं तो वे अनुसूचित जनजातियां कैसे रह सकते हैं?

भाव संवेदना से देखेंगे तो हम पाएंगे, 75 साल के हमारे लोकतंत्र में टुकुर-टुकुर नजरों से देखती जनजातियों के मन व जीवन में तमसो मा ज्योतिर्गमय की चेतना जागरण हेतु परिवर्तनकारी नेतृत्व की कलम से उत्थान के लिए एक बड़े निर्णय की आशा करता है भारत।

कार्तिक बाबू की भावना और 1970 से संसद के लंबित विधायी कार्य को पूर्ण करते हुए अनुसूचित जनजातियों की संवैधानिक परिभाषा में संशोधन करने से विघटनकारी और राष्ट्र विरोधी ताकतें कमजोर होगी साथ ही वनराज की चेतना कल्याणकारी शिवमय-शक्तिमय होगी जो हमारी जनजातियों के संपूर्ण विकास का सुस्पष्ट मार्ग प्रशस्त करेगी जो शासकीय रूप से कानून-व्यवस्था युक्त व सांस्कृतिक रूपसे भ्रम रहित होगा।

देश में धर्मांतरित जनजातियों रहित अनुसूचित जनजातियों को सांस्कृतिक, राजनीतिक, राष्ट्रीय और भौगोलिक संदर्भ में देखा जाए तो यह कार्य अंत्योदय से राष्ट्र भाग्योदय का वृहद रूप ही है।


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